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Ashtavakra Geeta by SWAMI PRAKHAR PRAGYANAND
ज्ञान-पिपासु एवं अध्यात्म-जिज्ञासु पाठकों के लिए एक श्रेष्ठ, पठनीय एवं संग्रहणीय आध्यात्मिक ग्रंथ।
भारतीय पौराणिक साहित्य-भंडार में एक-से-एक अप्रतिम बहुमूल्य रत्न भरे पड़े हैं। अष्टावक्र गीता अध्यात्म का शिरोमणि ग्रंथ है। इसकी तुलना किसी अन्य ग्रंथ से नहीं की जा सकती। अष्टावक्रजी बुद्धपुरुष थे, जिनका नाम अध्यात्म-जगत् में आदर एवं सम्मान के साथ लिया जाता है। कहा जाता है कि जब वे अपनी माता के गर्भ में थे, उस समय उनके पिताजी वेद-पाठ कर रहे थे, तब उन्होंने गर्भ से ही पिता को टोक दिया था—‘शास्त्रों में ज्ञान कहाँ है? ज्ञान तो स्वयं के भीतर है! सत्य शास्त्रों में नहीं, स्वयं में है।’ यह सुनकर पिता ने गर्भस्थ शिशु को शाप दे दिया, ‘तू आठ अंगों से टेढ़ा-मेढ़ा एवं कुरूप होगा।’ इसीलिए उनका नाम ‘अष्टावक्र’ पड़ा। ‘अष्टावक्र गीता’ में अष्टावक्रजी के एक-से-एक अनूठे वक्तव्य हैं। ये कोई सैद्धांतिक वक्तव्य नहीं हैं, बल्कि प्रयोगसिद्ध वैज्ञानिक सत्य हैं, जिनको उन्हेंने विदेह जनक पर प्रयोग करके सत्य सिद्ध कर दिखाया था। राजा जनक ने बारह वर्षीय अष्टावक्रजी को अपने सिंहासन पर बैठाया और स्वयं उनके चरणों में बैठकर शिष्य-भाव से अपनी जिज्ञासाओं का शमन कराया। यही शंका-समाधान अष्टावक्र संवाद रूप में ‘अष्टावक्र गीता’ में समाहित है।
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अनुक्रम
भूमिकाश्री अष्टावक्र गीता के अनुकरणीय सारतत्त्वपहला प्रकरण राजा जनक की जिज्ञासादूसरा प्रकरण (राजा जनक को आत्मज्ञान होना एवं इसका उनपर प्रभाव)तीसरा प्रकरण (राजा जनक की परीक्षा)चौथा प्रकरण (आत्मज्ञान-प्राप्ति की पुष्टि हेतु राजा जनक के उत्तर)पाँचवाँ प्रकरण (मोक्ष-प्राप्ति के उपाय)छठा प्रकरण (राजा जनक की अद्वैत की पूर्ण व्याख्या)सातवाँ प्रकरण (राजा जनक का अपनी मुक्तावस्था का वर्णन)आठवाँ प्रकरण (अष्टावक्रजी द्वारा मन की भूमिका का वर्णन)नौवाँ प्रकरण (शांति के उपाय)दसवाँ प्रकरण (काम मोक्ष-प्राप्ति में बाधक)ग्यारहवाँ प्रकरण (कैवल्य या मुक्ति/निर्वाण-प्राप्ति के उपाय)बारहवाँ प्रकरण (जनक द्वारा अपनी उपलब्धि के क्रम का वर्णन)तेरहवाँ प्रकरण (आत्म-बोध का फल कर्म-बंधन से मुक्ति)चौदहवाँ प्रकरणपंद्रहवाँ प्रकरण (गुरु अष्टावक्रजी का दीक्षांत रूप में जनक को उपदेश)सोलहवाँ प्रकरण ((ज्ञान का विस्मरण मुक्ति है)सत्रहवाँ प्रकरण (तत्त्व-ज्ञान का अधिकारी कौन)अठारहवाँ प्रकरण (आत्मज्ञान शतक)उन्नीसवाँ प्रकरण (परम अवस्था आत्मा में स्थित रहना है)बीसवाँ प्रकरण (आत्म-स्थिति में सभी द्वंद्व समाप्त हो जाते हैं)
Swami Prakhar Pragyanand
Swami Prakhar Pragyanand
(शिवानंद आश्रम, ऋषिकेश) जन्म :13 दिसंबर,1932 को। शिक्षा : एम.कॉम.। प्रकाशन : ‘योगवासिष्ठ सार’, ‘वास्तुशास्त्र सार—दोष-निवारण की सरल विधियाँ एवं आध्यात्मिक उपचार’, ‘वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धतियों द्वारा असाध्य रोगों का उपचार’, ‘यंत्र-मंत्र शक्ति’, ‘कुंडलिनी साधना-अमृत कलश’, ‘गीता के अनुकरणीय सारतत्त्व’।
ASIN:935186734X
Publisher:Prabhat Prakashan – Delhi; 1st edition (1 January 2019); Prabhat Prakashan – Delhi
Language:Hindi
Paperback:152 pages
ISBN-10:9789351867340
ISBN-13:978-9351867340
Item Weight:115 g
Dimensions:20 x 14 x 4 cm
Country of Origin:India
Importer:Prabhat Prakashan – Delhi
Packer:Prabhat Prakashan – Delhi
Generic Name:Books